Wednesday, November 28, 2007

बेनाम जसबात

ये कैसी उल्झनें?
ये कैसी हैरानियॉं?
अजी, गुस्ताखी कैसी?
जब हमने रखी सरॉंखों पर
आपकी मन्मानियॉं?

इन जख्मों का क्या मोल?
जी लेंगे; इन्हें मानकर
आपकी महरबानियॉं...

अल्फाजों पर न करें
और जुल्म
अब छोड भी दें
ये परेशान खामोशियॉं

हमारे दिल को जख्म देने की
इतनी बडी सज़ा?
अजी, माफी कैसी?
इश्क में आपके जख्मी हुए,
ये तो कुबूल हुई
हमारे ही दिल की रज़ा...

Tuesday, November 20, 2007

ऑंखें

उनकी ऑंखों से बेह्ते
जसबातों का झरना,
मेरे मन की प्यास
कुछ ऐसे बुझाए,
कि रुक न सके
मेरी प्रीत का सागर.

ऑंखों की वह हल्की चमक
कुछ कह गई,
अनकही...
मेरे सप्नों की दुनिया
आबाद कर गई,
मासूमियत उनकी...

उनके मन की परछाई
जैसे ऑंखों ने ओढ ली हो,
हल्की मुस्कान ने उनकी
जैसे मेरी ख्वाइशें चुरा ली हों...

न छूने की आस,
न प्रीत की प्यास,
अब है, सिर्फ एक एह्सास
जो मेरी रुः को
कर चला आजाद...

ख्वाइश

आप हमारे खयालों में रहिए,
नज़रों के सामने न आइएगा ,वरना
शर्म से कुछ ऐसे झुक जाऍंगी ये पलकें,
कि मुश्किल हो जाएगा इश्क का इज़हार

वह मुलाकात होगी तो बेहद हसीन,
लेकिन चाहेंगे फिर भी हम यही

दिल को आपकी तलाश रहे
रिश्ता आपसे नहीं,
शायरी में कैद
आपके एह्सास से रहे