Saturday, March 15, 2008

अनोखी साज़िश

पलकों के पीछे
मासूम-से जो सपने छिपे
क्यों नहीं हो जाते वे बदमाश?
क्यों न उडा ले जाते
हमें अपने साथ?

जीतकर हमें यथार्थ से
क्यों न देते आज़ादी का तोहफा?
क्यों न करते कोई जादू
कि हो जाऍं हम ज़माने से बेवफ़ा?

उनमें है वह काबीलियत,
तो फिर कैसी है बन्दिश?
खुशियों से मिलकर हमारी
क्या नहीं रच सकते यह साज़िश?

सहर

दिल की ख्वाबगाह में
हुई सहर
शीतल दस्तक पर बरसात की
तसव्वुर की रज़ाई में लिपटी
मेरी ख्वाइशों ने
ली अंगडाई
रुः की शैया से उतरीं
ज़िंदगी की ज़मीन पर

वास्तव में अपना एक
वजूद कायम करने...
रुकी हुई-सी सासों ने
की थी जिन बुलंदियों की दुआ
उन्ही नामुंकिन-से ख्वाबों में
सासें भरने...